बहुत खूब! चलिए, उसी भाव पर एक पूरी कविता पेश करता हूँ — दर्द, विश्वासघात और आत्म-संवेदना से भरी हुई। शीर्षक रखते हैं: "मुझे लूटा अपनों ने"

मुझे लूटा अपनों ने मुझे लूटा अपनों ने, जख़्म अजनबी क्या देते, हमदर्द बनकर छिप-छिप के वार वही कर देते। जिनके लिए हर मोड़ पे मैं दीवार बना, वो ही मेरे साये से भी किनारा कर गए। जिसे समझा था अपना, वो किरदार बदल गया, हँसी बाँटने वाला, अब खंजर सँभाल गया। हर मोड़ पर वक़्त ने ये एहसास दिलाया, दुश्मन से ज़्यादा ज़हर, अपनों ने पिलाया। मैं गिरा तो हाथ बढ़ाने कोई न आया, जो पास थे, सबने मुँह फेर लिया, हँस आया। अब तन्हा हूँ, पर चैन है इस खामोशी में, कम से कम ज़हर नहीं, है सुकून इस रोशनी में। "अब किसी से गिला नहीं, शिकवा नहीं किसी बात का, जो खोया वो सबक था, जो बचा है वो मेरा साथ है।"