अपनों की परछाइयाँ
राहुल एक आम इंसान था — दिल से सीधा, भरोसे से भरा, और अपनों के लिए कुछ भी कर गुजरने वाला। ज़िंदगी ने जब-जब उसे मोड़ा, उसने बस एक बात सीखी थी — “अपनों का साथ सबसे बड़ी ताक़त होता है।”
उसके तीन सबसे करीबी दोस्त थे: अमित, विशाल और नीरज। स्कूल से लेकर नौकरी तक, हर मोड़ पर चारों एक-दूसरे के साथ थे। राहुल की ज़िंदगी में जब तरक्की आई, तो उसने अपने दोस्तों को भी साथ उठाया — किसी को नौकरी दिलवाई, किसी की बिज़नेस में मदद की।
लेकिन वक़्त का खेल अजीब होता है। एक दिन, राहुल के ऊपर झूठा केस बनाकर उसकी कंपनी में छापेमारी हुई। उसी वक्त उसे पता चला — शिकायत किसी अजनबी की नहीं थी, बल्कि उसी के दोस्तों की थी। उन्होंने मिलकर उसकी पीठ में छुरा घोंपा… पैसे और जलन की आग में।
राहुल टूट गया।
वो पहाड़-सा इंसान, जो कभी दूसरों का सहारा था, अब खुद अकेला रह गया। हर आवाज़, हर चेहरा उसे चुभता था। कई दिन वो कमरे में बंद रहा, सिर्फ एक सवाल के साथ —
"मैंने उनका क्या बिगाड़ा था?"
मगर फिर एक शाम, जब सूरज ढल रहा था, उसने खुद से कहा —
"शायद मैं ही ग़लत था… जो हर अपने को आईना समझता रहा।"
वो उठा, खुद को साफ़ किया, और एक डायरी खोली —
पहला वाक्य लिखा:
"अब अपनों की परछाइयों से दोस्ती नहीं रखनी..."
उस दिन से राहुल ने सीखा कि रिश्ते निभाओ, लेकिन आँखें बंद करके नहीं। और सबसे ज़रूरी बात — अगर कोई तुम्हें लूटे, तो उसे दोष मत दो...
बस खुद को इतना मजबूत बनाओ कि अगली बार कोई हिम्मत न करे।